Unilingual dictionary of Hindi (हिन्दी के एकभाषीय कोश)

हिंदी में कोशों का आरम्भ १३वी शताब्दी से माना जा सकता हैं जब कि प्राय अमर कोश, मेंदिनी कोश, आदि के आधार पर समानार्थी और अनेकार्थी कोश लिखें जाने लगे। हिंदी कोशो के आदि काल मे इसी प्रकार के कोश उपलब्ध होते हैं । सही अथ मे इ हे हिंदी भाषा के शब्द कोश, कहना उचित नही होगा, क्योकि इनमे न ता तत्कालीन साहित्यिक शब्द भडार सगहीत ह और न तो जत प्रचलित शब्दावलछो। प्राय कोशक्रार कवि भी थे और उनवा उद्देइय अपने काय के लिए एक व्यावहारिक शब्दावछ्ली का सकलनत करना था। उहे सस्कृत की अधिक चिता थी, हिंदी की कम । हिन्दी शब्दो की सरया प्रकाश नाममाला और ‘ताम प्रकाश” मे भरपूर ह। ‘उमराव कोश’ में इनकी सरया सबसे अविक ह। आउश्यकतानुसार इनमे अरबी फारसी शब्द भी मिल जाते हु । डिंगल कोशो मे विशेष रूप से बहुत से स्थानीय दधब्द है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपृण ह। इन शब्दावलियों को अपनी सीमा ह। इस तरह के ४० ४५ समानार्थी कोश, १५ २० अनेकार्थी कोश ४५ एकाक्षरी कोश और ६ ७ डिंगल के कोश प्राप्त है । सबसे छोटे कोश में २८ और सबसे बडे मे २८०० दब्द है ।
छापेखाने के अभाव में तत्कालीन ज्ञान मौखिक परम्परा द्वारा आगे बढता था। सदभ ग्रथो की बात नही उठी थी । शब्द भडार को कठस्थ कर लेना होता था । इसलिए लगभग सब कोश पद्च बद्ध हैं। उदाहरणाथ, हरी विलास की ‘ताममाला’ में चौपाइया है, मिया नूर को ‘प्रकाशनाम माला म दोहे, बद्रीदास की ‘मान मजरी में सोरठे, सखिजन की “भारती नाम माला’ में दोहो के अतिरिक्त कवित्त और ‘उमराव कोश तथा नाम प्रकाश” में अनेकानेक छद प्रयुक्त् हुए हैं। प्राय कोशों मे केवल सज्ञापद है। केवल एक दो धातु कोश प्राप्त है । बड़े कोशो म एकाध वग विशेषणों पर हु। कितु काश्य मे नाम ( सनज्ञा ) की ही अभिक लीला
होती थी । छद के बबनो के कारण अनेक शब्द विक्ृत रूप म आ गए है । शब्दां का क्रम हमारी लिपि माला के अनुसार नही ह । प्राय शब्दों को वर्गा या अभपिफारा के अन्तगत रखा गया है। इन वर्गो के शीषक स्पष्ट है, जसे देवतानाथ, समुद्रनाथ, स्त्रीवग, दरबारी नाम, स्वग-चग, पातारू वग, शैल वग इत्यादि ।
अनेकार्थी कोश साधारण हू, कि तु कुछ एक में ज्ञान कोशोपयुक्त सामग्री सगहीत है । एकाक्षरी कोशो का हि दी की दष्टि से क्या महत्त्व ह, यह ठीक तरह मेरी समझ म नहीं आया। कुछ कोश ऐसे हू जिनकी विशिष्ट उपलरूब्धिया उल्लेखनीय हु। चदन राम ने अर्था को आदि वग के अनुसार एक साथ रखा हू, जैसे ‘सारग’ के अथ है—
पावक पकज पीके पठ, धन धनु घन घढ क्षीर। कनक कठिन कुच कीर कटि, नव नग नव निसि नीर ॥
आचाय भिखारी दास ने नाम प्रकाश’ में अनेकार्थी शब्दों को आतिम” अक्षर के अनुसार क्रमबद्ध किया । जैसे क में समाप्त होनेवाले, “व में समाप्त होने वाले, अथवा ‘श” आदि में होने वाले शब्द । धातु कोशो में भी, विशेषतया ‘भाषा धातु माला म क्रिया पदा को अतिम वण के अनुसार सचित किया गया ह, जैसे
कह गह दुह रह गृह लहु मोह सोह अवगाह ।रोह मोह अवरोह ढह सह चह निबह सराह ॥
इस तरह के अत्यानुप्रास पर आवारित शब्दकोश की तो आज भी आवृश्यकता है। कवियों केलिए भी और भाषा विज्ञानियों के लिए भी । ऊपर के विवरण का अथ यह है कि हमारे प्राचीन कोशकार शब्दों को वर्णानुक्रम के अनुसार रखने की पद्धति जानते अवश्य थे, किन्तु इसकी उपादेयता समानार्थी और एकार्थी कोशो की तुलना में क्या समझते थे। वणाक्रमानुसार कोश सपादन को कला का आरम्भ भारत में यूरोपियन विद्वानों से हुआ | प्राय इन लोगो ने हिन्दुस्तानी अग्रेजी या अग्रेजी हि दुस्तानी कोश तैयार किए जिनम सब तरह के दब्ल सगहीत थे–सज्ञापद, क्रियापद, विशेषण, क्रिया विशेषण आदि । इन्ही के अनुकरण में भारतीयां ने भी काश निर्माण के क्षेत्र में काय किया । १९वी शती के अतिम और २०वीं छाती के प्रथम चरण मे लगभग २० हि दी शब्द कोश प्रकाशित हुए। प्राय यह कोश छात्रोपयोगी थे। शल्पिक दष्टि से किसी की कोई विशेष महत्ता नही ह् । वणक्रमानुसार शब्दों का सयोजन, प्रत्येक शब्द का व्याकरण उसके अथ और यत्र-तत्र परिभाषा अथवा व्यारया-यह सब कुछ है और सब कोशो में एक सा ह। शब्द सरया किसी में कम ह तो किसी में अविक । इनमें ‘मगरू कोश, ‘कैसर कोश, श्रीधर भाषा कोश और ‘हिन्दो शब्दाथ पारिजात’ प्रसिद्ध रहे है ।
हि दी शब्द सागर के प्रकाशन ( १९१५-१९२७ ई० ) से हिन्दी-कोश कला मे एक नये युग का आरम्भ माना जाता है । ।इतना बडा आयोजन, इतने प्रसिद्ध साहित्यकारों और विद्वानो–श्यामसु दरदास बालकृष्ण भट्ट, रामच द्व शुक्ल, भगवान दीन, रामचन्द्र वर्मा, अमर सिंह और जगमोहन वर्मा के सक्रिय सपादकत्व मे ( तब इस तरह के सपादक मडल नही होते थे कि तु पढे न लिखे नाम आलम खा ), इतनी स्त्रच्छता और इननी मौलिकता के साथ हिंदी जगत मे आज तक सपन्न नही हुआ। उन दितो इस कोश का सबत्र स््रागत हुआ। युग के विचार से यहु कोश सबसे बडा, प्रामाणिक और उपयोगी माना जाता था। इसके २०-२५ वप बाद तब जितने कोश बने, सबका आवार यही था । बालकोश, सक्षिप्त कोश, छोटे मझोले और बृहत कोश सम्रमे ‘एक्रो-ह बहुस्थाम । यह सचमुच एक सागर था, शब्दो, अर्था, मुहावरो, लोकोक्तिया और उद्धरणों का। इस कोश के सचयन, सपादन, मुद्रण और प्रकाशन में २० वष लगे और कुछ मिलाकर एक लाख रुपया व्यय हुआ । अब इसका संशोधित और परिवद्धित सस्क़रण प्रकाश में आने रगा ह। १५ १६ वष से काम चल रहा है और इसके दस खडो में से ७ प्रकाशित हो चुके है। इसके सपादन में १ लाख ६५ हजार रुपया व्यय हो चुका ह । मुद्रण के लिए अलग से सहायता मिली है। ( इस पर भी प्रत्येक खड का मूल्य बहुत ही अधिक
रखा गया है। ) इसको प्रवित्रि को चर्चा थोडी देर मे की जायगी ।
हिंदी में एक भाषीय कोशो को कमो नहीं हु । अधिकतर कोश विद्यार्थियों के लिए तयार किए गए है, किन्तु किम स्तर के विद्यार्थियों के लिए–यह कोई भी सपादक नहीं बता सकता । अग्रेजी में प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्तातक एप स्ताततात्तर कशाओं के विद्याथियो की शब्दावली पर खोज हो चुकी ह ओर उसी के अनुसार कांगां का सपालन होता ह | हिंदी मे ऐसा कुछ भी नही है । हिन्दी मे प्रचलित भाषा का कोई शब्द फोग नहीं है। स्कूलो, कालेजो मे राजस्थानी अवधी और ब्रज भाषा की कत्रिताएँ पढाई जाती है इस लए बीसलदेव रासो से लेकर रामचरित मानस तक और पदमावत से लेकर कामायनो तक के
शब्दों का समावेश होना ही चाहिए | ऐसा नही ह कि हि दी बोलियो के सब टाठ इनमे मिठ ही जायें । हिंदी मे अभी तक कोशा से कोश बनते चले आ रहे ह, पुस्तका जार पत्र पत्रिकाओ से नही । मेरे पास १०० शब्द प्रेमचद से और १५० शब्द प्रसाद से सगहीत परे है जो हिन्दी के बडे से बडे कोश में नही मिलते । ‘हि दी शब्द सागर’ ( नवीन सस्करण ) म जात्म के अतगत आत्म कथा, आत्मघात, आत्मचितन, आत्मचरित आत्मज्ञानी, आत्मनिवेदन, आत्मविश्वास, आदि एक सौ के लगभग शब्द है कितु आत्मग्लानि, आत्मदर्शी, आत्मनिग्रह, आत्मनिणय, आत्मनिभर आत्मप्रवचन आत्मबलिदान, आत्मशक्ति, आत्मशिक्षा, आत्मणुद्धि, आत्मसरक्षण, जात्मस्तुति, आत्माभिन््यक्ति आदि बहुत सारे शब्द ह हो नही | सक्रठा शब्द प्रतियप हमारी भाषा मे प्रविष्ट हो रहे हु–अभी अभो परेराव, आयाराम गयाराम नक्सलवादी, दल बदल, नसबदी, भाई भतीजावाद, प्रसोपा, ससोपा, सिंडीकेट और इसके मुकाबले म इडीकेट आदि शब्द चले ह । ह कोई ऐसी सस्था जो इस सम्पत्ति को बचाकर रखती जा रही है कोश का सकलतन कोई मामूली काम नही ह। अमेरिका की प्रसिद्ध वेब्सटर डिक्शनरी का चौथा सस्करण १९३४ में प्रकाशित हुआ था । इसके लिए २५ सपादक, ९ सहायक सपादक और २०७ विशिष्ट सपादक लगाए गए थे। आक्सफोड डिक्शनरी ७० बप में तयार हुई थी और इसको समाप्ति तक सपादकों की तीन पीढिया समाप्त हो गयी थी, चौथी ने उसकी अतिम जिल्द देखी । इन दोनो कोशो का सश्योधन परिवद्धन होता ही रहता है। स्थायी सपादक पीढी दर पोढो काम करते ही जाते ह । प्रतिदित नयी पुस्तक और पत्र पत्रिफाएँ चली आ रहो ह् और सकलन कर्ता उनको पहकर सक्डो नए शब्दा और बीसिया नये अर्था के काल बनाते जाते हू । इस तरह वे अपउने कोश को शब्द प्तम्पत्ति को दृष्टि से अद्यतन और आवनिफतम बनाए रखने की चेष्टा करते रहते ह
हिंदी शब्द सागर ( नवीन सस्क्रण ) आवुनिक्रता की दृष्टि से कितना पिछडा हुआ है इसका सही मूल्याकन इस बात से किया जा सकता ह कि इसमे सकडो हजारा ऐसे शद नही मिलते जो आज के हि दी जगत में प्रचलित हु -अकपूची, अग॒पात, अत काठीन अत लोचन, अतविवेक, अतरविवाह अशमागिता, अकादमी, अकाल प्रौढ ( बाउक ), अकुशलता, अकेलापन अखडता, अखबारबाला, अखाडबाजी, अगुप्त, अग्रता, अचछता, अज्ञात भा, अज्नानाधकार, अपुत्रत, अगुशक्ति, अणुशास्त्र, अतिप्राकृतिक, अतिव्याप्त, अत्यावश्यक, अधिक्रम अधिनड्, अधिनायकत्व, अधिभार, अधियाचित, अधिशास्त्री, अनतिम, अन्नवर्ती, अनिद्रा रोग,
अनिशचयात्मक, अनुक्रमाक, अनुचितत, अनुज्ञात्मक, अनुबंध पत्र, अनुभवसापेक्ष्य, अनुभवाश्रित, अनुभवातीत, अनुमस्तिष्क अनुरक्षण, अनुशास्त्रि, अनौपचारिक, अपकर्षी, अपके द्वी, अप मिश्रण, अपराधजीवी, अपराधिता, अपसामाय, अप्रचलन, अभिकथन, अभिकेद्री, अभिगृहीत, अभियता, अभियाचना, अभिरक्षक अयानिक, अभिलेखागार, अजिशुष्णता, अथलिप्सा अर्डों
मीलित, असहमति, अह्॒के द्रत, अहमन्यता, आदोलनकारी, आधी पानी, आस गैस, आकण्ठ आक्राशमाग, आक्ृतिमूलक, आक्षरिक, आरयापन, आरयायिककार, आग्रहपूण, आग्रहपृवकजाचारसहिता, जाचारशास्त्र, आचार व्यवहार, आज्ञानवर्ती, आतककारी, जातिशबाजी, आदरसूचक, आदाना, आदिगुरू, आदियुग आदेशानुसार, आद्यक्षर, आवारवाक्य, आधारभूत,
आधारशिला आधोजाव, आनददायक, आनदपुर, आनदमग्न, आपत्तिजनक, आपातिक, अप्रवास, आफसेट, जाय कर, आरामतलबी, आरामपसद, आरोग्यलाभ, आरोग्यशास्त्र, आर्टिस्ट,आलोच्य, आवटन, जावक्ष ( मूत्ति ), आवधिक, आवेगपूण, आवशमय, आशा बत, आशावाद, वान, आशावादी, आशुलिपि, आइचयचकित, आहार नाल, आहारशास्त्र आदि आदि बहुत से
शब्द जिनका इस निबंध लेखक के लिए सग्रह करके दे देना लगभग असभव ही है । इस कोश, मेआबुनिकता’ शब्द भी नही ह, ‘प्राचीनता’ ह आचायत्व” नहीं ह, नायकत्व” भी नही ह, दुष्टत्व तो ह ।
कोश की भूमिका के बाद एक सूचना दी गयी हू कि लगभग ३५० ग्रथो से ( जिनकी सूची सकेतिका के अतगत दी गयी ह ) शब्दा का सम्रह किया गया है । इतम ९५% ग्रथ साहित्यिक हु और उनम लगभग ६०% खडी बोली के नही ह । साहित्येतर पुस्तकों से शब्दो का सकलन नही किया गया है । आज हमारे ज्ञान विज्ञान का क्षेत्र बहुत बडा ह। हिंदी केवल ललित साहित्य की भाषा नही ह। कोश के सपादक ( सपादक मडल के लोग नही ) यदि भाषा विज्ञान, समाजशास्त्र, अथशास्त्र, इतिहास, दशन, मनोविज्ञान, भूगोल, भूगभशास्त्र, रसायन, चिकित्सा भौतिकी, काएविद्या, आलेखन, वास्तुकला, सगीत, चित्रकला, जहाजरानी, वायुयान विद्या, यात्रिकी, प्राविधिक विज्ञान आदि पर एक एक पुस्तक भी देख लेते तो उनके शब्द भडार में हिन्दी का कुछ प्रतिनिधित्व हो जाता । कम से कम एक दिशा का निर्देश तो अवश्य होता । जब हमारे बडे से बडे कोश की यह हालत हू तो और कोशा की यहा त्रुटिया दिखाने की आवश्यकता नही है । आवुनिकता” के अभाव का एक और दष्टान्त ‘डालर’ के अथ में देखिए—लिखा ह “अमेरिका का एक सिक्का–ये १०० सेट या ठके का होता है, रुपयो में इसका मूल्य विनिमय दर के आधार पर सदा बदलता रहता हू । कभी एक डालर रे रुपए दा आने के बराबर था। सम्प्रति उसकी भारतीय रुपयो में कीमत लगभग ४ ८७ न० पैसे ।
वह खड जिसमे यह शब्द ह सन १९६८ ई० में प्रकाशित हुआ है और १९६५ से डालर ७५० के बराबर है।
प्राय लोग शब्दों की शुद्ध वतनी जानने के लिए कोश देखते हैं। हम हिन्दी के इस बडे कोश के केवल चार पष्ठो से कुछ उदाहरण दे रहे ह
प० १७८५– तत्त्वमसि र्वेतकेतो’ के स्थान पर छपा है तत्त्वमिस इवेतकेती
प्० १७७०–तत्व, पोधा, हृस्वाग छपे है ।
प्० १७७१–सतति के स्थान पर सबवति और चार बार जीवन चरित में ता
( त् हलत ) छपा है ।
प० १७७४–मूर्च्छा के स्थान पर मूर्छा’
प्राय लोग शब्द के अथ जानने के लिए कोश देखा करते ह। रामच द्रव वर्मा ने पहली बार प्रामाणिक हि दी कोश में सगतियुक्त सयोजन ओर वैज्ञानिक विकास की ओर की दिया । किन्तु उन्होने सभी अर्थो का क्रम आवत्तियों के अनुसार नहीं रखा। अन्य कोशो में वो काई बैज्ञानिकता नही पाइ जाती। सस्क्ृत के कोशा से अधा बुध शब्द और अथ उठा डे का दृष्परिणाम हमे भोगना पड रहा ह । हि दी शब्द सागर में ‘गो’ शब्द के आगे स्त्रीलिंग में १६ और पुल्लिग में १८ अथ गिनाए गए ह–स्त्रीलिंग ( १ ) गाय ( २) रश्मि ( ३ ) वृपराशि (४) ऋष्भ (५) औषधि (६) ( ७ ) सरस्वती (८) वष्टि ( ९ ) बिजली ( १० ) पथ्वी ( ११ ) दिशा ( १२ ) माता ( १३ ) गोमत्ति ( १४ ) बकरी, मेस (१५) भेड (१६) एकवीथी। पुल्लिग– १) बल (२) नदी (३ ) घाडा (४ ) सुय (५ ) चद्रमा ( ६ ) बाग ( ७ ) गवइया ( ८ ) प्रशसक ( ९ ) आकाश ( १० ) स्वग ( ११ ) जछू ( १२ ) वज ( १३ ) शब्द ( १४ ) नौकाअक ( १५ ) शरीर के रोग ( १६ ) पशु ( १७ ) हीरा (१८ ) गोमेद । हिंदी का बडे से बडा विद्वान भी मानेगा कि हिंदी भाषा में यह सब अथ नही चलते । क्या हम विजली के लिए यह कह सकते ह कि गो जला दो या बकरी के लिए कह सकते हु कि गो जा रही ह’, या माता के लिए कि “यह मेरी प्यारी गो ह या घोडे के लिए कि ‘टागे मे गो जुता ह ? ३४ अर्थो भएक अथ भी तो हिंदी मे नहीं चलता । गाय के लिए भी चाहे गऊ कह दे, पर उसे कोइ गो नही कहटा । हा, समासों में यह अथ मिल जाता ह जैसे गोदान, गोशाला, गोबूलि, गापाल, गोपुच्छ, गोमूत्र, गोमुख, गामेद गोरस आदि। और ‘इर्रियः अथ गोचर और गोपाल में पाया जा सकता है। बस । शेष ३२ अर्थों से हिंदी के विद्यार्थी का कतई कोई सबंध नही ह ।
‘पप की परिभाषा शब्दसागर मे यो दी ह–‘ वह नर जिसके द्वारा पानी ऊपर खीचा या चढाया जाता है अथवा एक ओर से दूसरी ओर भेजा जाता ह ।” पहली बात तो यह ह कि वह केवल नल नही ह दूसरी बात यह ह कि केवल पानी ही क्यों, तेल, गैस, हवा
आदि भी सम्मिलित करने चाहिए थे ।बहुत से पुराने शब्दों मे भी अथ का विकास होता रहता हू, कितु हमार बडेसे बडे कोश ने भी इस बात की चिंता तही की । अ, आ से ही कुछ एक उदाहरण नीचे
दिये जाते ह—
अतिरिक्त 5 फालतू
अधिक्रम 5 अधिकारियों का क्रमिक पद क्रम
अधिवक्ता > एडवोकेट
अनुचितन > मनन
अभिलेख +« रिकाड
अम्यार्थी उम्मीदवार
आकाशवाणी > आलू इण्डिया रेडियो
आरयापन « एलान
आरक्षी – पुलिस
आशसन ७ गुणकथन
ऊपर के सब शब्द तो इस कोश में है, कितु ये अथ नही है, दूसरे पुराने अथ अवश्य है । शब्दों की निरुक्ति हमारे कोशो का सबसे कमजोर पहल है। उच्चारण ओर बला-घात दोनो की आवश्यकता का अनुभव किसी कोशकार को नही हुआ । व्याकरणिक निर्देशों के सम्ब व में भी थोडा और सोचने की गुजाइश ह । क्या स० पुृ० और अ०» क्रिया मात्र देने से काम चल जाता ह ? हमे शायद यह भी दिखाना चाहिये कि यह सज्ञा भाववाचक है या समूहवाचक ह या जातिवाचक । इस सज्ञा के पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग रूप क्या बनते हे भस भेसा मौसी मौसा, धोबी थोबिन, नौकर नौकरानी आदि क्योकि प्राय कोशो मे व्युत्पन्न स्त्रीलिंग शब्दो को छोड दिया जाता ह। इसी प्रकार क्रिया की विस्तत जानकारी देने की आवश्यकता हु ।
ऊपर हमने अपनी अधिकाश चर्चा को हि दी दशब्दसागर’ तक सीमित रखा ह। कोश तो और भी ह और उनम रामशकर शुक्ल रसाल का भाषा शब्दकोश (पष्ठ सरया १९०८), कालिका प्रसाद आदि का बहुद हिन्दी कोश’ ( पष्ठ सरया १८०० ), और रामचन्द्र वर्मा का ‘मानक हि दी कोश ( पष्ठ सरया लगभग ३१०० ) प्रसिद्ध हैं। वैज्ञानिकता की दृष्टि से वे ओर भी पिछड़े हुए ह। हमने ‘सागर’ ( अनुमानित पष्ठ सरया ५५०० ) को इसीलिए चुना हु कि उसम ये सब नदिया समा गई ह् । यह फिर कहना पड रहा ह कि हिंदी में कोशो से कोश बनते है–सस्क्ृत का शब्द कोश भर लिया गया हू, उदू का भी, और अब तो ब्रज भाषा, राजस्थानो और अवधी के कोश भी प्रकाशित हो गए है । इ हे भी भरा जा रहा है, और दावा किया जा रहा है कि हिन्दी की शब्द सपदा एक लाख, अब सवा राख, अब डेढ लाख और दो लाख हो गई ह। अब सुनने में आया है कि भारत सरकार वेब्स्टर के आधार पर एक हि दी कोश तैयार करने की योजना बना रही है । कि तु प्रश्न यह है कि कया वेब्स्टर से हिन्दी का शब्द भण्डार पूरा हो जायगा ? अथवा, क्या वेब्स्टर हिंदी शब्दों के अथ निश्चित करने अथवा उनका क्रम निधारित करने मे सहायक हो सकेगा ? वेब्स्टर मे दो विशेषताएँ उल्लेखनीय है–एक तो पदो की वज्ञानिक परिभाषा और दूसरी पर्याय और विलोम शब्दा का सयोजन तथा विभेदीकरण । कि तु यह कोश आधुनिक कोश-वियान की दृष्टि से आबुनिक नही कहा जा सकता। हमे रूसी, जमन, और फ्रेच के प्रामाणिक कोशो के अतिरिक्त अग्नेजी के यूनिवसल, एडवास्ड रूनस, और दूसरे कोशो की पद्धतियो को भी जानना-समझना होगा । आज पाइचात्य देशा मे कोश कला अत्यन्त समुन्नत और प्रगतिशील हू । आज का कोश अपनी भाषा की पूरी सरचनात्मक, व्याकरणिक तथा व्यावहारिक जानकारी देने की चेष्टा करता है । खेद ह कि हिन्दी में किसी कोशकार का सपक पश्चिम क्री आवुनिकतम प्रित्रिया से नहीं है । हिंदी म॒ काशा की कमी नहीं ह। हिन्दी को प्रोर आवश्यकता है प्रशिक्षित, अ’ यत्रसायी, एवं जागरूक कोशकारो की ।